8 मार्च अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस
अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस (8 मार्च) के अवसर पर आज स्त्री मुक्ति लीग, उत्तराखंड द्वारा देहरादून के राजकीय पॉलिटेक्निक कॉलेज में ईरानी फ़िल्मकार मर्जिएह मेश्किनी की स्त्री प्रश्न पर केन्द्रित एक विश्व प्रसिद्ध ईरानी फ़िल्म THE DAY I BECAME A WOMAN ( वह दिन जब मैं औरत बन गई) की स्क्रीनिंग और उसपर बातचीत की गई। इसके साथ ही अंतरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के इतिहास और आज के समय में इसकी महत्ता पर भी विस्तार से बात की गयी।
कार्यक्रम का संचालन करते हुए स्त्री मुक्ति लीग की संयोजिका कविता कृष्णपल्लवी ने स्त्री दिवस के इतिहास पर चर्चा करते हुए कहा कि, 1910 में आयोजित समाजवादी महिला सम्मेलन में नारी-मुक्ति-संघर्ष और मेहनतकश अवाम की नेता क्लारा जेटकिन ने शान्ति, जनतन्त्र और समाजवाद के लिए संघर्ष में दुनियाभर की उत्पीड़ित औरतों की क्रान्तिकारी एकजुटता के प्रतीक के तौर पर 8 मार्च को अन्तरराष्ट्रीय स्त्री दिवस के रूप में मनाने का आह्वान किया था, क्योंकि इसी दिन 1857 में अमेरिका के कपड़ा उद्योग में काम करने वाली मेहनतकश औरतों ने काम के घण्टे 16 से 10 करने के लिए एक जुझारू प्रदर्शन किया था। आधुनिक दुनिया में पूँजी की नरभक्षी सत्ता के विरुद्ध शोषित उत्पीड़ित औरतों का यह पहला संगठित आन्दोलन था, जिसकी स्मृतियाँ एक मशाल की तरह आज भी हमारे रास्ते और दिलों को रौशन कर रही हैं। आज जब हम 21वीं सदी में खड़े होकर पीछे देखते हैं तो हमारे जेहन में यह सवाल आता है कि उस समय स्त्रियों में अपने अधिकारों के लिए एक संगठित लड़ाई लड़ी थी और लड़कर कई अधिकार हासिल भी किये थे। भारत जैसे दुनिया के तमाम देशों के राष्ट्रीय आन्दोलनों में स्त्रियों ने बढ़चढ़ कर भागीदारी की थी। लेकिन यह भी आज का कड़वा सच है कि एक संगठित संघर्ष के दौरान जो भी कुछ अधिकार उन्होंने हासिल किये थे वे भी अब धीरे-धीरे उनसे छिनते जा रहे हैं। समाज की तरक्की के साथ ही स्त्रियों ने भी संगठित होकर और लड़कर कुछ अधिकार हासिल किये, लेकिन साथ ही उनके शोषण और दमन के नये-नये रूप भी ईजाद हो गये आज बाज़ार व्यवस्था ने स्त्रियों का जिस्म ही नहीं, उनके पूरे वजूद को ही उपभोक्ता सामग्री में बदल दिया है।
उन्होंने आगे कहा कि, स्त्रियों की पीड़ा-व्यथा की कहानी अनन्त है। इसको नियति मान लेना हमारी सबसे बड़ी भूल होगी और गुलामी की जकड़बन्दी में और जकड़ते चले जाना होगा। ऐसा हम हरगिज़ नहीं होने देंगे। इतिहास भी बताता है कि स्त्रियाँ हमेशा से पुरुषों के मातहत नहीं रही हैं। निजी सम्पत्ति की व्यवस्था के साथ इतिहास में स्त्रियों की गुलामी की शुरुआत हुई। लेकिन स्त्रियाँ बराबरी और मुक्ति के लिए लगातार लड़ती रही हैं। पूरी दुनिया के स्तर पर संघर्षों के एक लम्बे सिलसिले के बाद ही वे कुछ हासिल कर सकी हैं। इतिहास यह भी बताता है कि सामाजिक बदलाव या आज़ादी की कोई भी लड़ाई तभी जीती जा सकती है जब उस लड़ाई में आधी आबादी की भागीदारी हो।
इस अवसर पर फ़िल्म के साथ कुछ क्रान्तिकारी गीतों की प्रस्तुति भी की गई।
आज जो फ़िल्म दिखाई गयी उसका संक्षिप्त परिचय
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'वह दिन जब मैं औरत बन गई' उम्र के तीन अलग-अलग पड़ावों पर खड़ी तीन स्त्रियों की ज़िन्दगी और पितृसत्तात्मक समाज द्वारा उन पर थोपी गई बंदिशों का कलात्मक प्रस्तुतिकरण है। इसमें रूपक, अन्योक्ति और अतियथार्थवाद (surrealism) का शानदार उपयोग किया गया है। यह फ़िल्म तीन स्वतंत्र कहानियों का एक आकर्षक ऑडियो-विजुअल कोलाज है।
पहली कहानी हावा नामक बच्ची की है जिसे उसके नौवें जन्मदिन पर उसकी माँ और दादी यह एहसास दिलाती हैं कि वह अब औरत बन गई है और इसलिए उसकी कुछ जिम्मेदारियाँ हैं। उसे अब लड़कों के साथ नहीं खेलना चाहिए और बाहर निकलते समय चादोर (ईरानी लिबास जिससे चेहरे के अलावा शरीर का शेष ऊपरी हिस्सा ढका जाता है) पहनना चाहिए। हावा को दोपहर तक का समय दिया जाता है जिसके बाद औरत के रूप में उसकी जिम्मेदारियाँ शुरू हो जाएंगी। उसके बाद दोपहर होने से पहले तक का समय हावा अपने सबसे अच्छे दोस्त हसन के साथ किस तरह बिताती है इसे जानने के लिए फ़िल्म देखें।
दूसरी कहानी आहू नामक युवा स्त्री की है जो साइकिल रेस में हिस्सा लेती है। आहू रेस में सबसे आगे निकल जाती है लेकिन उसका पति घोड़े से उसका पीछा करने लगता है। वह उसे रोककर उसे वापस घर ले जाने की कोशिश करता है और उसे तलाक की धमकी देता है। यही नहीं आहू के पति का पूरा कुनबा घोड़े से उसका पीछा करते हुए उसे रोकने की कोशिश करता है।
तीसरी कहानी हूरा नामक एक बुजुर्ग निसंतान महिला की है जिसे युवावस्था में एक पुरुष ने धोखा दिया था। हूरा के पास बुढ़ापे में एकाएक बहुत पैसा आ जाता है। उस पैसे से वो घर गृहस्थी का वो सारा साजो सामान खरीद लेना चाहती है जो वह पहले पैसों की कमी की वजह से नहीं खरीद सकी थी। फिर भी उसे लगता है कि कोई सामान छूट गया है। कुछ बाल मज़दूरों की मदद से वह उन सामानों को एक समुद्र के किनारे रखवाती है। अन्त में वह खरीदे हुए अपने सारे सामान को बच्चों की मदद से जहाज से समुद्र के पार ले जाने की कोशिश करती है।
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