ठीक नहीं हुआ प्रधानमंत्री जी!
प्रेमकुमार मणि
पहलगाम घटना के तुरत बाद प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह बिहार में जा कर गरजे थे, मुझे अनुमान हुआ था कि पुलवामा की तरह ही कुछ हल्का-फुल्का अभ्यास होगा ताकि लोगों के गुस्से को शांत किया जा सके। घटनाओं की तुलना नहीं करना चाहता, किन्तु पुलवामा की घटना अधिक भयावह थी। हमारी सेना के चालीस जवान विस्फोट में उड़ा दिए गए थे. यह सीधे सेना को चुनौती थी। पहलगाम में निहत्थे सैलानियों को घेर कर उनका परिचय पूछ कर मारा गया। यह कायराना हमला था। परिचय जान कर गोली मारने के पीछे मकसद था कि सांप्रदायिक तनाव बनाया जाय। जब शत्रु उकसावे तब हमें विवेक से काम लेना चाहिए, एकबारगी क्रोध में नहीं आना चाहिए। जवाब देने केलिए सही समय का इन्तजार करना चाहिए। यह न पुलवामा के बाद हुआ, न पहलगाम के बाद। 1965 और 1971 में इस से कम गंभीर मामले पर त्वरित और ठोस कार्रवाई हुई थी। उस से सरकार सबक तो ले सकती थी।
प्रधानमंत्री का विदेश यात्रा को स्थगित कर देश लौटना सही था। लेकिन अगले रोज सर्वदलीय बैठक में न शामिल हो कर उनका बिहार की एक उद्घाटन रैली में पहुँच जाना अफसोसजनक था। सर्वदलीय बैठक की गरिमा उन्होंने गिराई। बिहार से उन्होंने गर्जन किया कि ऐसी कार्रवाई करेंगे जिस की कल्पना हमारे दुश्मनों ने नहीं की होगी। जब प्रधानमंत्री बोलता है तो विश्वास करना स्वाभाविक होता है। पूरे विपक्ष और भारत की जनता ने एक स्वर से सरकार का साथ दिया। यह हमारी परंपरा रही है। यही हमारी ताकत है। रक्षा के मामले में फैसला सरकार को लेना होता है. यह उसकी जिम्मेदारी होती है कि देश का स्वाभिमान सुरक्षित रखे.
पहलगाम में जो हुआ यह हमारी कमजोरी और शत्रु पक्ष की दुष्टता रेखांकित करता था। यह तो हमें स्वीकार करना होगा कि पुलवामा के बाद हमने ठोस कार्रवाई की होती तो पहलगाम न होता। हमारी कमी के कारण वह घटना हुई। लेकिन कभी-कभी भूल-चूक भी होती है। हमारी सरकार ने भरोसा दिलाया कि शत्रु को मुंहतोड़ जवाब देंगे। युद्ध का वातावरण विकसित किया गया। युद्ध हमेशा गलत होता है। चाहे वह कोई भी युद्ध हो। वह अंतिम विकल्प होता है। होना चाहिए भी। लेकिन देश के साधु-व्यापारी और घर-घुस्से लोग मूर्खतापूर्ण ढंग से फेसबुक पर युद्ध का मोर्चा संभाले हुए थे। अनाप-शनाप खबरें और प्रवचन दिए जा रहे थे। स्ट्राइक वगैरह अवश्य हुए। लेकिन भारत ने क्या किया, उसके बारे में स्पष्ट तौर पर अभी तक मुल्क को पता नहीं है. मीडिया का इतना विस्तार हुआ है और वह इतना बेलगाम है कि खबरों के बीच से झूठ और सच को अलगाना मुश्किल हो जाता है। क्या-क्या नहीं खबरें प्रसारित हुईं। लेकिन अंततः युद्ध विराम की खबर सबसे ऊपर थी. जब युद्ध आरम्भ ही नहीं हुए तब विराम कैसा। वह भी इसकी घोषणा अमेरिकी राष्ट्रपति करता है।
पता नहीं और लोगों ने इसे किस रूप में देखा, लेकिन मेरी नजर में यह भारत की बड़ी राजनयिक पराजय है। पाकिस्तान तो अमेरिका, चीन सब का पिछलग्गू पहले से ही है। भारत के प्रधानमंत्री ने भारत को भी पाकिस्तान के स्तर पर खड़ा कर दिया। मेरे जानते यह पहली बार हुआ है जब अमेरिकी राष्ट्रपति ने भारत-पाक मामले में इस तरह की दखलंदाजी की है और भारत ने उसे स्वीकार किया है। यह हमारी सम्प्रभुता और शान पर बट्टा लगाने वाला है। प्रधानमंत्री जी को तुरंत संसद बुला कर इस की सूचना देनी चाहिए और समीक्षा भी होनी चाहिए।
भारत-पाक के मामले आज से नहीं हैं। इस मामले को केवल युद्ध के स्तर पर नहीं, कई स्तरों पर देखना होगा. हमने अपने इतिहास-बोध को भी इतना कुंद रखा है कि इस भयावहता को नहीं समझ पाते। धमकी और हिंसा पाकिस्तान-पंथियों के शुरू से ही औजार रहे हैं। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें अनेक रूपों में प्रोत्साहित किया। 1942 में भारत छोडो प्रस्ताव करते ही कांग्रेस नेताओं की अगले रोज गिरफ्तारी हो गई, लेकिन सीधी कार्रवाई ( डायरेक्ट एक्शन) की सार्वजनिक घोषणा के बाद भी लीग के नेताओं पर कोई कार्रवाई नहीं हुई। डायरेक्ट एक्शन हिंसा की खुली धमकी थी। इसी से पाकिस्तान का जन्म होता है। उसे इस हिंसा का चस्का लग गया है। आज तक वही तरीका चल रहा है। आज तक हमारे इतिहासकारों ने इस बात की समीक्षा नहीं की कि अंतरिम सरकार में किस आधार पर कांग्रेस और लीग के बराबर-बराबर सदस्य रखने की व्यवस्था अंग्रेजी हुकूमत ने रखी थी। दुर्भाग्यपूर्ण था कि कांग्रेस ने भी एतराज नहीं किया। सेंट्रल असेम्बली में कांग्रेस और लीग के सदस्यों में बड़ा अंतर था। हिन्दू-मुस्लिम आबादी का अनुपात भी 68 और 22 का था। लेकिन ऐसा लगा मानो बराबरी का बंटवारा हो रहा है। यह सब हमारी गलतियां रही हैं कि एक अल्पसंख्यक मनोवृत्ति का लोकतंत्र खड़ा करने की कोशिश हमने की। लीग की हिंसा और अड़ंगेबाजी का हमने राजनीतिक समाधान नहीं ढूंढा।
अब जब देश का विभाजन हो गया है और पाकिस्तान और बंगलादेश दो इस्लामी राष्ट्र हमारे दाएं-बाएं खड़े हैं तो हमें सावधानीपूर्वक राजनीतिक निर्णय लेने चाहिए। हमारे भारत में भी मुस्लिम आबादी जो 1951 में दस फीसद से कम थी बढ़ कर चौदह फीसद से अधिक हो गई है। पाकिस्तान और बंगलादेश की हिन्दू आबादी विभाजन के समय भारत की मुस्लिम आबादी के ड्योढ़े से अधिक (लगभग 15 फीसद) थी। आज वह नगण्य रह गई है। धार्मिक डेमोग्राफी के बिगड़ते अनुपात पर कभी खुली चर्चा नहीं होती जो होनी चाहिए।
भारत की मुस्लिम आबादी ने आमतौर पर देश के राजनीतिक ढाँचे के साथ सहमति जताई है। देश के विकास में इनका योगदान रहा है। इसका कारण इनका स्वाभाविक भारतीयकरण है। इनका एक छोटा हिस्सा कट्टरता की बात करता है और भारतीयता से ऊपर अपने अरबी पहचान और इस्लामी कट्टरता को रखना चाहता है। दुर्भाग्यपूर्ण है कि इसे कुछ तथाकथित सेकुलर हिस्से का समर्थन मिलता है। इस समस्या को देखना होगा। हर बार के तनाव में भारतीय मुसलमानों ने विवेकपूर्ण तरीके से अपनी भारतीयता का परिचय दिया है। इनको समझना चाहिए। इस प्रवृति को बढ़ावा देना होगा। शरीअत कानूनों और दीनी शिक्षा के दकियानूसी ढांचे को खत्म करना होगा।
कोई भी मुल्क आज धर्म-केंद्रित हो कर विकास नहीं कर सकता। बंगलादेश और पाकिस्तान में जाहिलों की जमात बढ़ रही है। कुछ लोग भारत में भी जाहिल दिखने की होड़ में हैं। इसलाम की तर्ज पर वह भी हिंदू कट्टरता और मनुवादी ढ़ांचे को खड़ा करना चाहते हैं। यही लोग युद्ध के लिए अधिक ताल ठोक रहे थे। ऐसे उन्माद से भारत को नुकसान ही होगा। भारत की अर्थव्यवस्था को अभी राजनीतिक स्थिरता और शान्ति की जरूरत है। धर्म और जाति की पहचान के मुकाबले हमें भारतीयता की पहचान मजबूत करनी है। यह हमारे पड़ोसियों को बेहतर जवाब होगा।
फिर कहूंगा प्रधानमंत्री जी ने मुल्क की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंचाई है। युद्ध रुक गया है अच्छी बात है, लेकिन हमें अपनी सम्प्रभुता और गरिमा का ख़याल रखना चाहिए।
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