होलिका दहन और नैतिक मुल्य।

होलिका दहन करने वाले इस लेख को अवश्य पढ़ें---

गत कई दिनों से पूरे देश के शैक्षणिक संस्थानों, मीडिया- चैनलों एवं राजनीतिक गलियारों में धर्मनिरपेक्षता की धज्जियां उड़ाते हुए होली मनाने की धूम मची हुई है। हर जगह आज की रात्रि में होलिका (महिला)का दहन किया जायेगा और कल रंग-अबीर उड़ाते हुए होली मनाई जाएगी।

प्राचीन भारत में इस त्योहार की शुरुआत महान सम्राट हिरण्यकश्यप की हत्या और वैज्ञानिक एवं तकनीकी विशेषज्ञा हिरण्यकश्यप की बहन होलिका के दहन करने से हुई थी।उसके पुत्र प्रह्लाद जो आर्य ब्राह्मणवादी देवता विष्णु के भक्त थे ,के जीवित बच जाने की खुशी से जुड़ी कहानी से हुई थी। इसके अलावा जितने भी ब्राह्मणवादी पुराण और पौराणिक कथाएं हैं उनमें तरह-तरह के विवरण मिलते हैं जो एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न और विपरीत हैं।

दरअसल सिन्धु - हड़प्पा सभ्यता में इस त्योहार का कोई स्थान नहीं था। लगभग 1750 ईसा पूर्व से 1000ईसा पूर्व के बीच आर्यों-ब्राह्मणों द्वारा संपूर्ण सिंधु घाटी में वहां के मूलनिवासियों असुर,राक्षस, नाग, दास,दैत्य,दानव आदि की सम्पत्ति,सत्ता और संस्कृति पर कब्जा कर लिया गया था। फिर वे पूरब एवं दक्षिण भारत की ओर विस्तार करने के लिए लड़ाईयां करते हुए आगे बढ़ रहे थे।उसी समय ईसा पूर्व 1000 से 600ईसा पूर्व की अवधि में गंगा घाटी के मैदान में उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और बंगाल तक मूलनिवासियों ने कृषि और पशुपालन के क्षेत्रों में  विकास करते हुए  छोटे- बड़े अनेक मातृसत्तात्मक जनजाति- गणतंत्रात्मक राज्यों के निर्माण हो चुके थे।

किन्तु अब उसकी जगह काशी, मगध,कोसल,अंग,वंग,पुण्ड्रू (बांग्लादेश),कलिंग सहित अनेक पितृसत्तात्मक राज्यों के निर्माण हो रहे थे। इसी क्रम में हिरण्यकश्यप के नेतृत्व में भी एक विशाल राज्य का गठन हुआ था जो उपर्युक्त वर्णित भूभाग तक काफी विस्तृत था। यह राज्य उत्तर प्रदेश, बिहार, बांग्लादेश, बंगाल और उड़ीसा के कलिंग तक फैला हुआ था। यह राज्य मातृसत्तात्मक एवं गणतंत्रात्मक राज्यों के स्थान पर पितृसत्तात्मक राजतंत्रीय राज्य के रूप में विकसित हुआ था।

नागवंशी हिरण्यकश्यप एक महान विद्वान, अजेय योद्धा,श्रमण संस्कृति के महानायक, हड़प्पा सभ्यता एवं संस्कृति के उत्तराधिकारी और कर्मवाद के महान विचारक एवं उन्नायक थे। उन्होंने अनेक बार आर्यों-ब्राह्मणों के बड़े-बड़े देवताओं अर्थात नेताओं, सेनापतियों और सेनाओं  को बुरी तरह  पराजित कर धूल  चटाया था।आर्य -ब्राह्मणों के देवता अर्थात प्रधान नेता उनके डर से थर थर कांपते थे। उनका प्रभाव इतना अधिक था कि पुराणों के लिखने वाले आर्य-ब्राह्मणों ने भी कहा है कि हिरण्यकश्यप को न तो दिन में मारा जा सकता है और न ही रात में,न धरती पर और न ही आकाश में । उन्हें न तो अस्त्र से और न ही शस्त्र से मारा जा सकता है ।ऐसा वीर प्रतापी उनका पराक्रम था।

          उनके विचारों में श्रम और ज्ञान का केन्द्रीय महत्त्व था।वे मानते थे कि श्रम और ज्ञान की शक्ति से ही सभी मनुष्यों और समाज के दुखों को दूर कर विकास और प्रगति की जा सकती है। वे मानते थे कि मनुष्य के शरीर में ही इतनी क्षमता है कि वे अपने जीवन में सब तरह की खुशहाली ला सकते हैं(अत्त दीपो भव)।उनके विचारों में आर्य ब्राह्मणों के ईश्वर, देवी-देवताओं  की पूजा-अर्चना एवं प्रार्थना बिल्कुल व्यर्थ और निष्फल होते हैं।वे मानते थे कि आत्मा, पुनर्जन्म,स्वर्ग, नरक और भाग्य आदि काल्पनिक और असत्य हैं।

   उन्होंने अपने राज्य के लोगों में यह प्रचारित- प्रसारित करवाया था कि आर्य ब्राह्मणों के मंत्रपाठ , यज्ञ और बलि करने से मानव को कोई फायदा नहीं होता है । ये सब अज्ञानता, अन्धविश्वास और काल्पनिक हैं। उन्होंने कहा था कि केवल योग करने ,श्रम करने,ज्ञान हासिल करने, अच्छा कर्म करने और नैतिकता का पालन से ही मनुष्य स्वस्थ, सम्पन्न, सुखी और सुरक्षित जीवन जी सकते हैं। इसलिए वे ब्राह्मणवादी कर्मकांडों, यज्ञों, पूजा - प्रार्थना,बलि, काल्पनिक विचारों एवं देवी देवताओं का विरोध करते थे।

            उस समय आर्यों के देवता इन्द्र के स्थान पर देवता अर्थात नेता के रूप में विष्णु स्थापित हो चुके थे और वे हिरण्यकश्यप की हत्या कर किसी भी तरह से उनका राज्य हड़पना चाहते थे और आर्यों को सौंपना चाहते थे।

हिरण्यकश्यप के राज्य में रबी फसलों के कटाई के पूर्व हर साल फाल्गुन पूर्णिमा के दिन कृषि त्योहार मनाया जाता था जिसमें संध्या के समय लकड़ियों में आग लगा कर अधपके फसलों को उसमें पकाया जाता था और धरती माता की मिट्टी एवं धूल लगा कर सभी लोगों को बधाई और शुभकामनाएं दी जाती थी।पृथ्वी माता के प्रति श्रद्धा प्रकट करने के भाव सिंधु - घाटी सभ्यता और संस्कृति में भी हमें मिलते हैं। उनके दरबार में भी यह लोक उत्सव खुशीपूर्वक धूमधाम से मनाया जा रहा था।इस त्योहार का विष्णु ने लाभ उठाया और अपने शरीर को नरसिंह के मास्क में छिपा कर  अपनी सेना के साथ अचानक हमला कर दिया एवं सैकड़ों लोगों के साथ मूलनिवासियों के महान सम्राट और वीर हिरण्यकश्यप की हत्या कर दी गई और उनकी बहन होलिका को आग में झोंक दिया गया।

इस घटना के लगभग 1000 वर्षों के बाद गुप्त राजवंश के काल (400ई-600ई)में अपने धर्म ग्रंथों में ब्राह्मण लेखकों ने अपने- अपने ढंग से महान सम्राट हिरण्यकश्यप एवं उनकी बहन होलिका के बारे में झूठ और मनगढ़ंत अनेक कथाएं लिखीं। ब्राह्मणवादी द्वारा उसे प्रचारित - प्रसारित करने के कार्य सदियों तक किया गया। मूलनिवासी महानायक के अपमान और असत्य कथाओं पर आधारित यह त्योहार   गुप्तकाल से लेकर मध्य काल 400ई से 1500ई तक विकसित होता रहा था। जितने भी ब्राह्मणवादी ग्रंथों में हमें होली, वसंतोत्सव,मदनोत्सव आदि विवरण मिलते हैं वे सभी इसी कालखंड की रचनाएं हैं। 

वास्तव में यह सत्य पर असत्य का विजय है। विज्ञान,तर्क एवं बुद्धि पर अवैज्ञानिक एवं अन्धविश्वास की जीत है।श्रमण संस्कृति पर ब्राह्मणवादी- मनुवादी संस्कृति की झूठ,फरेब और हिंसा का विजय है।श्रम की अच्छाई पर ईश्वरवादी  बुराई की जीत है।

तो आइए , आज हम अपने महान विचारक, कर्मवाद के महान उन्नायक, योग के महान प्रवक्ता,अजेय योद्धा,श्रमण संस्कृति के महानायक हिरण्यकश्यप और उनकी विदुषी एवं वैज्ञानिक बहन होलिका की  शहादत दिवस के अवसर पर उन्हें शत-शत नमन और हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करें।


 जय श्रमण संस्कृति!जय भीम!! जय भारत!!

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