हिन्दू धर्म

भारत के एक जनगणना आयुक्त की 1921 की रिपोर्ट में लिखा है, "कोई भी भारतीय अपने धर्म के तौर पर 'हिंदू' शब्द से परिचित नहीं है।" उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक अंग्रेजी भाषा में शिक्षित कुछ ही ऊंची जाति के भारतीय थे जो हिंदू धर्म के हिस्से के रूप में अपनी पहचान बना रहे थे। चूंकि पिछली शताब्दी में ही “हिंदू” शब्द साफ तौर पर सामने आया जिसका मतलब एक राज्य से और एक बड़ी आबादी से था जिसमें विशेष रूप से निचली जातियों को बिना मशविरा किए शामिल कर लिया गया था। इससे यह बात पूरी तरह साबित होती है “हिंदू धर्म” बीसवीं सदी का आविष्कार है। उपमहाद्वीप के लंबे इतिहास में प्रभावशाली सवर्ण समुदाय खुद को और दूसरों को एक ही धर्म का मानने को तैयार नहीं थे, बल्कि वे अपनी पहचान अलग-अलग जातियों से करते थे और हाल के बढ़ते जातिगत अत्याचार यह दर्शाते हैं कि यह तथ्य अभी भी नहीं बदला है। शुरुआत में वे खुद को नीची जाति के लोगों के साथ जिन्हें वे नीच और अछूत मानते थे, एक ही श्रेणी में रखने पर भी ऐतराज जताते थे।

बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में जाहिर तौर पर देखा गया कि कैसे मुख्य रूप से सवर्ण राष्ट्रवादी नेताओं ने स्पष्ट और रणनीतिक रूप से हिंदू धर्म को एक राजनीतिक परियोजना के रूप में अपनाया। मोहनदास गांधी और जवाहरलाल नेहरू की कांग्रेस ने इस एकीकरण पर सवाल नहीं उठाया। इसलिए नहीं कि इसका मतलब उत्पीड़ित-बहुसंख्यक वर्ग के साथ राजनीतिक सत्ता को साझा करना था बल्कि इसलिए कि नीची जाति के लोगों को “हिंदू” श्रेणी के तहत लाकर ऊंची जाति को उनका प्रतिनिधित्व करने की अनुमति मिल गई और जब 1950 के दशक के अंत में अंग्रेजों से सत्ता भारतियों के हाथ में आई तो वह प्रभावी जाति-कुलीन वर्ग के हाथों में केंद्रित हो गई।

अन्य सवर्ण नेताओं ने हिंदू परियोजना को अधिक निस्संकोच रूप से आगे बढ़ाया। आर्य समाज के बनिया नेता लाला लाजपत राय और रूढ़िवादी सनातन आंदोलन के ब्राह्मण नेता मदन मोहन मालवीय 1915 में हिंदू महासभा नाम की राजनीतिक पार्टी बनाने के लिए एक साथ आए जिसने आगे चलकर भारतीय जनसंघ और बीजेपी का रूप लिया। 1925 में महासभा के सदस्य केशव बलिराम हेडगेवार ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की, जो हिंदू पहचान का प्रचार करने के लिए समर्पित संगठन है।

तिलक और उनके साथी हिंदूवादी राजनीतिक परियोजना के सृजनकर्ता थे, जिसे समाज को ब्राह्मणवादी नजरिए को ध्यान में रखते हुए कड़ाई से परिभाषित किया जाना था। तिलकवादी निचले पायदान पर मौजूद जातियों और महिलाओं के उत्थान का तीखे स्वरों में विरोध करते थे। उन्होंने उन सभी चीजों को सिरे से खारिज कर दिया जिन्हें वे विदेशी मानते थे। उनमें मुसलमान भी शामिल थे, जो एक हजार से अधिक वर्षों से भारतीय उपमहाद्वीप में रह रहे हैं। तिलकवादी परियोजना ने अंग्रेजी औपनिवेशिक शासन के साथ आई और विकसित हुई आधुनिक लोकतांत्रिक मापदंडों और न्यायिक प्रणालियों को विकृत कर दिया। यही प्रक्रिया वर्तमान सरकार की देखरेख में तेज गति से जारी है।


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