तानाशाही और अंधविश्वासों पर टिके हुए सामाजिक आधार
उपनिवेश विरोधी संघर्ष के दौरान भारत के उच्च-वर्गीय नेताओं ने जान-बूझकर भारतीय राष्ट्रवाद को हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतिनिधि रूप में पेश किया।
स्वाभाविक ही था कि उन्होंने इस राष्ट्रवाद को उन हिंदू ग्रथों में तलाश किया जो दलित-बहुजन को आध्यात्मिक रूप में अशुद्ध और ऐतिहासिक रूप से मूर्ख करार देती थीं।
फुले, पेरियार और अंबेडकर को छोड़कर किसी भी और राष्ट्रवादी नेता ने राष्ट्रवादी विमर्श को धर्म-निरपेक्ष रखने और उसमें हिंदू चेतना की अवैज्ञानिकता की आलोचना को जगह देने का प्रयास नहीं किया।
हिंदू धर्म को केन्द्र मे रखकर किया जानेवाला मुख्य धारा का समूचा विमर्श यही कहता है कि यह एक पवित्र धर्म रहा है, इसकी उत्पादन-विरोधी और विज्ञान -विरोधी नैतिकता पर कभी किसी ने कोई सवाल नहीं उठाया। इससे अविकास की एक विनाशकारी प्रक्रिया शुरू हुई।
हिंदू आध्यात्मिक ने बौद्धिक गरीबी का निर्माण किस-किस तरह किया और भाऋत के आध्यात्मिक, सामाजिक और नैतिक तंत्र में अब हमारे पास क्या विकल्प हैं।
देश को हिंदू धर्म की आध्यात्मिक तानाशाही और अंधविश्वासों पर टिके हुए सामाजिक आधार से रचनात्मक आध्यात्मिक के लोकतंत्र तक ले जाना एक संघर्षपूर्ण प्रक्रिया है। और क्योंकि इसमें एक मूर्ति-पूजक रूढ़िवादी समाज को ग्रंथ-केन्द्रित आध्यात्मिक तक ले जाना भी शामिल है, इसलिए इसमें समय भी बहुत लगेगा।
भारत में पढ़ने की संस्कृति. को जातिवादी अंधविश्वासों और ऐतिहासिक पिछड़ेपन की वजह से बहुत नुकसान पहुंचा है।
राष्ट्रवाद को चाहिए था कि वह अंधविश्वास की जकड़बंदी, जातिवादी और अस्पृश्यता को आमूल खत्म कर देता लेकिन हिंदू राष्ट्रवाद ने अंधविश्वास और अवैज्ञानिकता को उल्टे बढ़ाया है।
इस समय दलित-बहुजन का ऐसा कोई नागरिक समाज नहीं है जिसकी व्याप्ति बड़े पैमाने पर हो और किसी किताब से प्रेरणा लेखर किसी मुक्ति-संघर्ष का नेतृत्व कर सके।
अनुसूचित जातियों, जनजातियों और अन्य पिछड़ी जातियों को एक ऐसी बौद्धिक ताकत में तब्दील करना भर है जो एक सामाजिक-आध्यात्मिक और वैज्ञानिक इंकलाब का झंडा लेखर आगे बढ़ सकें।
महात्मा फुले से लेकर अब तक अन्य लेखन के बावजूद भारत की पिछड़ी जातियां यह नहीं जान पायी हैं कि हिंदू धर्म ने किस तरह उनकी वैज्ञानिकता का दमन किया है।
वे बस राजनीतिक ताकत हासिल करने में जुटे हैं, बिना यह जाने कि जब तक वे आध्यात्मिक धरातल पर दमित स्थिति में हैं न तो उनकी बौद्धिक आकांक्षाएं पूरी होंगी और न उनकी वैज्ञानिक क्षमता कोई आधुनिक रूप ग्रहण कर पाएगी
अंबेडकर के लेखन और जीवन से प्रेरित दलित समाज अवश्य अपनी सामाजिक और आध्यात्मिक मुक्ति के रास्ते आगे बढ़ रहा है।
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