गणेश पूजा के इतिहास और संस्कृति को हम जानें और समझें...
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आज गणेश चतुर्थी से पूरे देश भर में गणपति पूजा की हो रही है। महाराष्ट्र एवं गुजरात में तो यह दस दिवसीय राजकीय पूजा का रूप ग्रहण कर चुका है। बिहार सहित पूरे हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भाद्र माह अर्थात भादो महीने के शुक्ल चतुर्थी को चौठचंदा या चौरचंदा के नाम से महिलाओं द्वारा पति और बेटे की दीर्घायु जीवन के लिए चांद की पूजा का व्रत किया जाता है, जिसे गणेश पूजा के साथ भी जोड़ दिया गया है। वास्तव में यह गणेश या गणपति पूजा है।इसकी शुरुआत गुप्तकाल के बाद हुई थी और बाद में इसे चांद की पूजा से जोड़ कर महिलाओं के बीच सदियों तक प्रचारित- प्रसारित किया गया।
आधुनिक भारत में एक समारोह के रूप में महाराष्ट्र में इसकी शुरुआत स्वतंत्रता आंदोलन के प्रसिद्ध ब्राह्मणवादी नेता गंगाधर तिलक के द्वारा की गई थी। कोल्हापुर नरेश छत्रपति शाहूजी महाराज के द्वारा बहुजनों के लिए शिक्षा देने, छुआछूत खत्म करने, राजकीय पदों पर आरक्षण लागू करने एवं उनके अन्य समाज सुधार के कार्यक्रमों को देखकर ब्राह्मणवादी नेताओं और पुरोहितों में खलबली मच गई थी। उनके इन सुधार कार्यक्रमों को बाधित करने एवं बाबा साहेब डॉ आंबेडकर के नेतृत्व में मूलनिवासी-बहुजनों के लिए वोट देने के लोकतांत्रिक मांगों को बाधित करने के लिए गंगाधर तिलक सहित ब्राह्मणवादी पुरोहितों ने इस त्योहार को जोर-शोर से मनाने की शुरुआत की थीं।
प्राचीन भारत के मूलनिवासियों के गणराज्यों के प्रमुख, नायक या रक्षकों को गणपति कहा जाता था। गणपति का दूसरा समानार्थक शब्द है गणेश यानी गणों का ईश अथवा देवता । बृहत संहिता में (छठी शताब्दी ई.) में इन्हें गणनायक और वराहमिहिर भी कहा गया है. इसका अर्थ है कि किसी जन समुदाय या संघ का मुखिया। वाजसनेयी संहिता में गणपति को 'गणनाम गणरुपेण पालकम कहा गया है अर्थात जो जनजाति गणों या राज्यों की रक्षा करता है। इससे स्पष्ट होता है कि गणपति पहले देवता नहीं थे, बल्कि वे जनजातीय समूह या गणराज्य के मुखिया,प्रमुख या नायक थे।
महाभारत में कई गणपतियों की बातें कही गई हैं। इसमें वर्णित है कि "यहां गणेश्वरों और विनायकों का प्रतिनिधित्व है, वे संख्या में बहुत अधिक हैं और सर्वत्र उपस्थित हैं।" इसलिए ब्राह्मण पुरोहितों ने गणपति की आलोचना और निंदा करते हुए उन्हें अच्छे कार्यों में बाधा डालने वाला विघ्नेश्वर या विघ्नराज कहा है। मानव गृहसूत्र में कहा गया है कि ''गणपति के अनुयायी या माननेवाले (व्यक्ति) मिट्टी के ढेले तोड़तें हैं, स्त्रियां बांझ हो जाती हैं, संताने मर जाती हैं, छात्रों को शिक्षा पाने में बाधाएँ आ जाती हैं, कुंवारी लड़कियों को पति नहीं मिलते हैं"...आदि आदि। याज्ञवल्क्य स्मृति में भी इसी प्रकार की निंदनीय बातें वर्णित हैं। इससे स्पष्ट होता है कि गणपति मूलनिवासियों के मुखिया या प्रमुख थे जिनके खिलाफ आर्य -ब्राह्मणों द्वारा षड्यंत्रकारी योजना के तहत दुष्प्रचार और निंदा किए जा रहे थे।
इस प्रकार के षड्यंत्र और निंदनीय काम करने के पीछे कारण क्या थे?
पहला कारण तो यह था कि सिन्धु -हड़प्पा सभ्यता के मूलनिवासी बहुजनों पर विजय प्राप्त करने के बाद भी भारत के विस्तृत क्षेत्रों में आर्य- ब्राह्मणों के सामने सीना तान कर मूलनिवासियों के अनेक गणराज्य खड़े थे,जिन्हें पराजित करना उनके लिए काफी कठिन था।आर्य ब्राह्मण गणराज्यों को भी जीत कर राजतांत्रिक राजनीति की स्थापना करना चाहते थे, किन्तु गण प्रमुखों के कारण वे ऐसा नहीं कर पा रहे थे।
दूसरा कारण यह था कि आर्य- ब्राह्मण अपने देवी-देवताओं, यज्ञ-मंत्र एवं बलि देने के धर्म और संस्कृति को गणराज्यों के क्षेत्रों में प्रचारित -प्रसारित करना चाहते थे , किन्तु गणपतियों द्वारा उनका प्रबल विरोध किया जा रहा था। गणराज्य के क्षेत्रों में ब्राह्मणवादी विचारधारा और धर्म-संस्कृति के प्रचार- प्रसार को गणपतियों ने रोक रखा था, क्योंकि वहां के मूलनिवासी लोगों में हड़प्पा सभ्यता की श्रमण संस्कृति का ही अनुशरण एवं प्रचलन था।
यह सर्वविदित है कि बुद्ध काल में भी उत्तर भारत में अनेक गणराज्य थे। यहां तक कि गुप्त काल में भी मध्य एवं पश्चिम भारत में नागवंशियों के अनेक गणराज्य थे, जिन्हें चन्द्रगुप्त और समुद्रगुप्त ने भीषण युद्ध के बाद पराजित किया था। किन्तु पराजय के बाद भी मूलनिवासियों का अपने-अपने गणपति के प्रति अपार प्रेम, सम्मान एवं आदर था और उन्हें अपनी श्रमण संस्कृति के प्रति भक्ति थी।
मूलनिवासी बहुजनों को अपने पक्ष में करने के लिए और उनके बीच में ब्राह्मणवादी विचारधारा एवं धर्म -संस्कृति को प्रचारित प्रसारित करने के लिए गुप्तकाल और उसके बाद की अवधि में ब्राह्मण पुरोहितों ने पुराणों में अनेक झूठी कथाओं की रचना कीं। उन्होंने अब गणपति को देवता बना दिया और उनका पूजा करवाना शुरू कर दिया।अब वे गणपति की प्रशंसा में मंत्रों के गीत गाने लगे और उनके गुणों के कसीदे पढ़ने लगे। किंतु उनके रंग-रूप को विकृत कर दिया गया, ताकि उनके मूल रूप और इतिहास को धूमिल की जा सके।
स्कंद पुराण और 'ब्रह्मवैवर्त्त पुराण' में उन्हें पशुपति शिव से जोड़ते हुए पार्वती के मल या पैखाना से जन्म लेना बतलाया गया है तथा हाथी मुंख या सिर लगने की असंगत, झूठी एवं अवैज्ञानिक कथा वर्णित है। उन्हें राक्षसी या गजासुर से भी जन्म लिया हुआ बतलाया गया है। यहां आकर ब्राह्मण पुरोहितों ने गणपति बप्पा को असुर और राक्षस वंश से जन्म लिया हुआ स्वीकार किया है। उन्होंने झूठी कथा गढ़ कर उसमें ब्राह्मणों के गुरु और क्षत्रियों का संहार करने वाले परशुराम के द्वारा कुल्हाड़ा से मारकर गणपति का सभी दांत तोड़ (एक दांत छोड़कर) देना बतलाया गया है। धर्मशास्त्रों में गणेश को हस्तिमुख, कुंभाकार पेट, मूषक वाहन, वक्रतुंड, एकदंत अादि छवि प्रदान कर उपहास के पात्र एवं हास्यास्पद बना दिया गया, ताकि गणपति के प्राचीन इतिहास को मटियामेट किया जा सके। वस्तुतः भारत के मूलनिवासी दास, दस्यु, असुर, राक्षस, नाग, पिशाच आदि जनजातियों के प्रमुखों या गणपतियों के प्रति यह आर्य ब्राह्मणों के घृणित एवं निंदनीय कार्य हैं।
इस पृष्ठभूमि में हीं गणपति या गणेश पूजा के वास्तविक तथ्यों के रूप में हम पाते हैं कि बौद्ध सम्राट कनिष्क के शासन के बाद और बौद्ध धम्म को नष्ट करने के बाद गुप्तकाल में ब्राह्मण-पुरोहितों ने गणपति को देवता का रूप देना शुरू कर दिया। उन्होंने मूलनिवासियों में भी अपना श्रेष्ठ स्थान बनाने के लिए तथा उनके बीच ब्राह्मण धर्म का प्रचार-प्रसार करने के लिए गणपति का पूजा-पाठ करवाना शुरू कर दिया और उनकी प्रशंसा में वे गीत गाने लगे। उनके सदियों के प्रचार-प्रसार के कारण मूलनिवासी-बहुजनों को अन्धविश्वास एवं पूजा पाठ के जाल में फंसा दिया गया, ताकि वे पीढ़ी दर पीढ़ी दान-दक्षिणा प्राप्त कर सकें।
तो आइए, हम इस अवसर पर मूलनिवासी-बहुजन समाज के भाई -बहनों, छात्र-युवाओं और शिक्षित बुद्धिजीवियों के बीच इन उपर्युक्त तथ्यों को रखें और उन्हें अपने इतिहास, धर्म एवं संस्कृति की सत्य बातों से परिचित कराएं।
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