आइए, हम छठ पूजा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को जानें और समझें !
आइए, हम छठ पूजा की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को जानें और समझें!
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आज से चार दिनों तक चलने वाला छठ पर्व की शुरुआत नहाय- खाय (स्नान कर कद्दू की सब्जी और चावल भोजन करने से) होगी। कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष षष्ठी तिथि को यह व्रत मुख्य रूप से शुरु होता है, इसलिए लोग इसे छठ पूजा के नाम से पुकारते हैं।यह व्रत और पर्व इस अर्थ में अधिक महत्व का है कि यह मुख्य तौर पर बिहार और पूर्वी उत्तरप्रदेश के लोगाें द्वारा आयोजित किया जाता है। यहां के लोग भारत के विभिन्न प्रदेशों में स्थाई और अस्थाई तौर पर निवास करते हैं और बहुत लोग विदेशों में भी जा बसे हैं, इसलिए वे लोग उन स्थानों पर भी इस पर्व को मनाते हैं। इस व्रत की विशेषता यह है कि इसमें कृषि जनित अन्न,सब्जी, फल -फूल तथा गाय- भैंस पशु के दूध,घी, गोबर और नदी, सरोवर, पोखर आदि के जल से सूर्य की उपासना की जाती है।
इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि घर द्वार की पूर्णतः सफाई की जाती है।व्रत करने वाले लोगों के द्वारा उपवास करने और फिर अस्ताचलगामी सूर्य एवं उदयमान सूर्य को अर्घ्य देकर उपासना के साथ 7वीं के दिन इस पर्व की समाप्ति होती है।
इस पर्व के परिणामस्वरूप लोगों में स्वच्छता का भाव सचेतन रुप में जागृत हो उठती हैं और ऐसा होने से शरीर एवं मन पर साकारात्मक प्रभाव पड़ता है और आनन्द की अनुभूति होती है।इस पर्व के परिणामस्वरूप लोगों में हंसी- खुशी का माहौल बन जाता है।
इस पर्व की सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें किसी ब्राह्मण पुरोहित, तंत्र -मंत्र, कर्मकांड आदि का कोई महत्व नहीं है। इसमें किसी काल्पनिक भगवान की उपासना नहीं है ,बल्कि प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देने वाले सूर्य ग्रह को ही भगवान मान लिया गया है। यह व्रत साक्षात सूर्य, ऊर्जा के प्रमाणिक स्रौत, की उपासना से जुड़ी है। इसमें एक ही साथ कृषि, पशु, जल एवं ऊर्जा के मुख्य स्रौत सूर्य को महत्व दिया जाता है।
इस पर्व का कोई विवरण हमें न तो वेदों, उपनिषदों, धर्म- शास्त्रों, रामायण, महाभारत एवं स्मृतियों में मिलता है और न ही बौद्ध ग्रंथों एवं जैन धर्म ग्रंथों में मिलता है। सिंधु घाटी सभ्यता में भी सूर्य पूजा का कोई अवशेष नहीं मिला है। हां ,वैदिक काल में आर्यों के देवताओं की श्रेणी में सूर्य देवता को पांचवें स्थान पर रखा गया है और उसे पांच नाम से सूर्य,सवित्,मित्र,पूषन, और विष्णु के रूप में बार-बार याद किया गया है। किन्तु उनकी पूजा और उपासना विधि का कोई उल्लेख नहीं मिलता है।
इस पर्व का विवरण हमें गुप्त काल 400ई से लेकर 16 वीं सदी के बीच लिखे गए पुराणों में मिलता है। हमें विष्णु पुराण,ब्रह्मवैवर्त पुराण,भगवत पुराण आदि ब्राह्मणवादी ग्रंथों में मध्यकाल में इस व्रत का विवरण मिलते हैं।प्रतीत होता है कि गुप्तकाल के बहुत बाद ही यह व्रत शुरु हुआ था। किन्तु कालक्रम में इन ग्रंथों का महत्व इस पर्व में केवल इतना ही है कि उनमें ब्राह्मणवादी पुरोहितों ने जो झूठी कथाएं और अन्धविश्वास रखे थे वे आज लोकगीतों एवं लोककथाओं के रूप में इस लोक पर्व में शामिल हो चुके हैं। लगभग पांच सौ वर्षों में धीरे -धीरे विकसित होकर यह व्रत आज बहुत ही व्यापक रूप में हमारे बीच उपस्थित है।
इस व्रत में ये अन्धविश्वास एवं मिथकीय कहानी के रुप में मौजूद हैं कि इसे करने से कुष्ठरोगियों, बहरों, गूंगों, लंगड़ों की बीमारी ठीक हो जाती हैं, गरीबी और भूखमरी दूर हो जाती हैं, किसी प्रकार की बीमारी नहीं होती है एवं पुत्र संतान की प्राप्ति होती है,आदि,आदि। किन्तु ये केवल कहने और सुनने भर की बातें हैं।हम व्यवहार में पाते हैं कि यह व्रत करने वाले लोग भी उपर्युक्त बीमारियों एवं गरीबी के शिकार होते रहे हैं।जो लोग बीमारी के शिकार हैं वे डॉक्टरों के द्वारा ही चिकित्सा से ठीक होते हैं।जो गरीब लोग हैं वे पीढ़ी दर पीढ़ी अपना मेहनत कर ही अपनी जीविका चलाते रहे हैं। इस व्रत के करने से या अन्य कोई भी व्रत और पूजा-पाठ करने से न तो किसी की कोई बीमारी ठीक होती है,न किसी की गरीबी दूर होती है और न ही किसी की कोई आशा-अभिलाषा की पूर्ति होती है।
यह हमें समझना आवश्यक है कि अन्य देशों और भारत के ही अन्य भागों में यह व्रत- उपासना नहीं की जाती हैं, तो क्या सूर्य की ऊर्जा और धूप उन्हें नहीं मिलती हैं? क्या सूर्य उन लोगों से नाराज हो जाता है?क्या जो फल,मेवे, पकवान एवं अर्ध्य आदि सूर्य को अर्पण किया जाता है वह उन तक पहुंच पाता है? अगर ऐसा नहीं होता है तो निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि यह केवल अन्धविश्वासों एवं परम्परा पर टिका हुआ व्रत है।हम इसे करें या नहीं करें ,कोई फर्क पड़ने वाला नहीं है।
इन दिनों इस अंधविश्वास पर आधारित लोकप्रियता का लाभ उठाने के लिए ब्राह्मणवादी लोग अब जगह -जगह पुरोहितों के नेतृत्व में सूर्य की मूर्तियां स्थापित करने लगे हैं।इन षड्यंत्रकारी लोगों से मूलनिवासी समाज के लोगों को सावधान रहने की जरूरत है। आधुनिक भारत के निर्माण के लिए आज की यह आवश्यकता है कि हम समाज के लोगों को उपर्युक्त अन्धविश्वासों से वैचारिक अभियान चलाकर मुक्त करें।हम समाज में शिक्षा के जरिए तर्क, वैज्ञानिक विचारों और ज्ञान के स्तर पर उन्हें जागरूक बनायें।
जय भीम। जय भारत।
विलक्षण रविदास
संरक्षक
बिहार फुले -अम्बेडकर युवा मंच
बहुजन स्टूडेंट्स यूनियन,बिहार
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