संत कबीर
संत परंपरा में कबीर वर्ग संघर्ष को लेकर प्रतिबद्ध थे!
कबीर डंके की चोट पर कहते हैं कि 'तू बाम्हन मैं कासी का जुलाहा।'
अगर कहें तो धर्मनिरपेक्षता का सबसे बेहतर उदाहरण आपको कबीर के यहां मिलेगा।
कबीर कहते हैं कि
पाथर पूजे तो हरि मिले, तो मैं पूजूँ पहाड़।
ताते या चाकी भली, पीस खाए संसार।।
काँकर पाथर जोरि कै, मस्जिद लई बनाय।
ता चढ़ मुल्ला बांग दे, बहिरा हुआ खुदाए।।
कबीर एक ऐसे संत हैं जिसे किसी बंधनों में नहीं बांधा जा सकता है।
कबीर कहते हैं कि 'पंछी खोज मीन को मारग, कहहि कबीर दोउ भारी।'
आकाश में पक्षी की उड़ान का रास्ता और मछली का जल-मार्ग खोजना दुस्तर है।
अगर स्वतंत्रता के अभिव्यक्ति की झलक आपको देखना है तो आप कबीर के परंपराओं में देख सकते हैं।
कबीर ही ऐसे संत हैं जो कभी भी हीनता बोध का शिकार नहीं हुआ।
बच्चन सिंह अपने हिंदी साहित्य के दूसरा इतिहास में लिखते हैं कि ' बैठे-ठाले साधुओं तथा अगृहस्थ होकर भी गृहस्थी का उपदेश देनेवाले भक्तों के सामने वह शारीरिक श्रम का उदाहरण प्रस्तुत करता है। गृहस्थी में रहकर भी उससे वीतराग। छोटी जाति में पैदा होने पर भी उसमें हीनता की ग्रंथि नहीं है क्योंकि वह बड़ी जातियों से ज्ञान में कम नहीं है। वह पोथी-पत्राभिमानियों को जबरदस्त झटका देता है।'
भले ही बाद में उनके मृत्यु के बाद उनको लेकर मौलवी से लेकर पंडो तक धूर्त तरीके अपनाकर अपने-अपने बंधनों में बांधना चाहा लेकिन कोई बांध पाने में सफल नहीं हो पाया।
वे पंडित, काजी को संबोधित करते हुए उनकी खिल्ली उड़ाते हैं, संतों को संबोधित करते हुए वे अपनी बात कहते हैं। पंडितों, मुल्लाओं की लानत-मलामत करते हुए थकते नहीं। सवालों की ऐसी बौछार करते हैं कि मुंह ताकते रह जाते हैं। काजी और पंडे उनके व्यंग्य के मुख्य लक्ष्य हैं। और बाम्हन! 'कलि में बाम्हन खोटे।'
इस देश में जनमानस को लेकर अगर कोई सबसे ज्यादा प्रतिबद्ध संत था तो वो कबीर!
कबीर तो अपने श्रोताओं-पाठकों के बीच सीधे संवाद करते नजर आते हैं, इसलिए उनकी टेक है 'कहै कबीर सुनो भाई संतों।'
कबीर के श्रोता या पाठक हाशिए पर न रहकर सीधे संवाद में भागीदार हो जाता है।
हिंदी साहित्य के दूसरा इतिहास में बु्चन सिंह लिखते हैं कि 'कबीर के बारे में यह कहना कि वे समाज-सुधारक थे, गलत है। यह कहना कि वे धर्म-सुधारक थे और भी गलत है। यदि सुधारक त तो रैडिकल सुधारक थे। वो धर्म के माध्यम से समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन लाना चाहते थे। वहां कोई पंथ खड़ा करने कुछ पक्षपाती नहीं थे। वे ऐसे समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसमें न कोई हिंदू हो न मुसलमान, न पूजा हो न नमाज, न पंडित हो न मुल्ला, सिर्फ इंसान हो।'
आगरा लिखते हैं कि 'सामंती समाज की जड़ता को तोड़ने का जितना काम अकेले कबीर ने किया उतना अन्य संतों और सगुणमार्गियों नहीं मिलकर भी नहीं किया। उनकी चोटों की मार से, जातिवाद के संरक्षक पंडित और मौलवी सम्मान रूप से दु:खी हैं। वे सबसे अधिक आधुनिक और सबसे अधिक प्रांसगिक हैं।'
बच्चन सिंह लिखते हैं कि 'कबीर पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने विभिन्न धर्मों, संप्रदायों, जातियों, वर्णों को नकारकर ऐसे समाज की स्थापना का प्रयास किया जिसमें धर्म, संप्रदाय, ऊंच-नीच के भेद-भाव के लिए कोई स्थान नहीं है। उनके समाज में न कोई हिंदू है, न मुसलमान - सब मनुष्य हैं, कोई किसी से छोटा-बड़ा नहीं है। पीड़ित, शोषित, अपमानित जनमानस के दु:ख से जितना सरोकार कबीर का है उतना भक्तिमाल के किसी अन्य कवि का नहीं। उनका गैर-समझौतावादी व्यक्तित्व अलग से चमकता है।'
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